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"उत्तर प्रदेश में ख़त्म होता भोजपुरी फिल्मों का बाज़ार", सुनने में यह बात काफी अजीब लगती है, खासकर तब जबकि ज्यादातर लोग अपनी अपनी फिल्मों को हर जगह सुपरहिट का तमगा देने में मशगूल है और आज भी कोई भी भोजपुरी फिल्म आने से पहले ही सुपरहिट करार दे दी जा रही है। पर सच्चाई इन दावों से कहीं दूर है, और उत्तर प्रदेश की तो हालत बद से बदतर होती दिख रही है।
उत्तर प्रदेश पिछले सात सालों से भोजपुरी फिल्मों का एक महत्वपूर्ण बाजार साबित होता रहा है। यह कहने में मुझे कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी की भोजपुरी फिल्मों को पुनर्जीवन उतार प्रदेश में ही मिला था। "ससुरा बड़ा पैसावाला", इस फिल्म ने वाराणसी के आनंद मंदिर में और गोरखपुर के यूनाईटेड सिनेमा में ऐसा दौर शुरू किया जो आज तक चल रहा है। आनंद मंदिर, वाराणसी में तो इस फिल्म ने कुल ३४ हफ्ते चलने का रिकार्ड बनाया था जो अभी भी उत्तर प्रदेश में कायम है। उत्तर प्रदेश में भोजपुरी फिल्मों ने कुछ ऐसा जादू चलाया था कि निर्माता-वितरक धड़ल्ले से उत्तर प्रदेश में अपनी फिल्मों का प्रदर्शन करते रहे। पहले शुरुआत में जहां निर्माता और वितरकों ने फिल्म के व्यवसाय को सांझा बांटा वहीँ एक ऐसा शानदार दौर भी आया जहां निर्माताओं ने वितरकों को मुहमांगे दाम पर फिल्में बेचना शुरू कर दिया। भले ही इसमें सारा जोखिम वितरकों का ही था, परन्तु यह स्थिति भी वितरकों को मान्य थी।
आज के करण अर्जुन, दाग, दिलजले, देवरा बड़ा सतावेला, दरोगा बाबु आई लव यु, शिवा आदि कई ऐसी फिल्में थी जिसके लिए उत्तर प्रदेश के वितरकों ने निर्माताओं को मुहमांगे दाम दिए। वितरकों के कई ऐसे जोखिम सफल भी साबित हुए पर पिछले २ साल से भोजपुरी फिल्मों के बाज़ार ने जो पलती मारी है, उससे उत्तर प्रदेश के वितरक आज ऐसे घबराये हुए है कि कई निर्माता तो उत्तर प्रदेश में अपनी फिल्म रिलीज ही नहीं कर पा रहे हैं। खासकर सुपरहिट फिल्म दाग के बाग़ वितरकों ने कई फिल्में जिसमें दिलजले, गुंडाराज, दुश्मनी आदि शामिल हैं, उसे कही ऊँचे दाम पर खरीदा और यह सभी फिल्में बौक्स ऑफिस पर एक के बाद एक फुस्स साबित होती चली गईं।
यह पिछले दो सालों में एक के बाद एक असफल फिल्मों की ही देन है कि २०११ की कई फिल्में आज तक उत्तर प्रदेश में रिलीज नहीं हो पाई हैं, जबकि वही फिल्में आज टी।वी। पर भोजपुरी चैनलों पर दिख रही हैं। आज उत्तर प्रदेश में रिलीज होनेवाली फिल्में ज्यादातर मल्टी स्टारर या फिर किसी बड़े हीरो के होने की वजह से ही रिलीज हो पा रही हैं, जिसके चलते कुछ छोटी परन्तु अच्छी फिल्में उत्तर प्रदेश के दर्शकों को देखने को ही नहीं मिल रही है।
उत्तर प्रदेश में कम होते भोजपुरी फिल्मों के व्यवसाय का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है की यहाँ भोजपुरी फिल्में बिहार और मुंबई में रिलीज में होने के कम से कम २-३ महीने बाद ही रिलीज होती हैं, जिससे दर्शकों की उत्सुकता ख़त्म सी हो जाती है। हमारी भोजपुरी फिल्म पता नहीं क्यों अपने दर्शकों को बेवकूफ मानकर बैठी है, कि इन्हें जब भी फिल्म दिखायेंगे, दर्शक फिल्म को नया समझ कर देखने चले आयेंगे। पिछले साल बहुत बड़ी हिंदी फिल्म "आरक्षण" का ही उदाहरण लीजिये जो कुछ राज्यों में बैन कर दी गयी थी। यह फिल्म जब एक हफ्ते बाद उन राज्यों में रिलीज हुई तो दर्शकों ने फिल्म को देखने से ही मना कर दिया। अब जब "आरक्षण" जैसी बड़ी फिल्म के साथ दर्शक ऐसा बर्ताव कर सकते हैं तो बाकी फिल्मों की क्या बिसात ?
कई लोग इस लेख पर यह भी कहेंगे कि जब फिल्म ही अच्छे नहीं बन रही तो चलेंगी क्या ? परन्तु यहाँ सवाल यह है कि एक समय जहां भोजपुरी फिल्में बिहार और उत्तर प्रदेश में बराबर कि ओपनिंग लेती थी, वही आज ऐसा क्या हो गया कि उत्तर प्रदेश इस रेस में लगातार पिछड़ता चला जा रहा है ? शायद आज भी हमारी फिल्म इंडस्ट्री इस मुद्दे पर ध्यान देने को तैयार नहीं है और अब देखने की बात बस यही है कि उत्तर प्रदेश से ऐसा सौतेला व्यवहार भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री कब कब तक जारी रखेगी।
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